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कनैल के फूलो पे उतरी
सावन की पियराई सांझ
लौटे वंशी के स्वर
बन की गंध समेटे
सिंदूरी बादल से
चम्पई हुयी दिशाएं
हलधर के हल पर है उतरी
थकी हुयी मटमैली सांझ
झरते रह रह हरित पात
धरती है कस्तूरी
नेह निवेदित हुए आँगने
रुनझुन सुन बारिश की
तुलसी के चौरे पर उतरी
झिलमिल कर उजियारी सांझ
खेतों में है धानी पन्ना
चांदी बन कर बूंद गिरी
जीवन के उत्सव महके हैं
जैसे धूप हो मंदिर की
सिहराते बनताल में उतरी
कजरी की त्योहारी सांझ
***
बहना की राखी पर उतरी
चंदा बन रतनारी सांझ 🌿